पातियाँ संदूक से
मापनी ~ 14/12
यूँ विरह का गान करती
पातियाँ संदूक से
तिलमिलाई है घटा भी
कोकिला की हूक से।।
कंकड़ों के चीखने से
कब हॄदय पथ का जला
लाँघती है पीर सीमा
घाव अंतस में पला
भाग्य पल में है बदलता
कंडियों में चूक से।।
रेत तपती जा रही है
बूँद बिन ज्यों भूख से
माँगते है प्राण आश्रय
सब झुके हैं रूख से
घास के तृण पीर सहते
सुन रहे हैं मूक से।।
रो रही हैं सब शिलाएँ
जो समाधी पर सजी
फूल भी मुरझा गए सब
जब चटक चूड़ी बजी
दे रही उत्तर व्यथा के
आज फिर दो टूक से।।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
नव्य नूतन बिम्ब द्वारा अनुपम प्रस्तुति, सुंदर सृजन 👌👌👌
जवाब देंहटाएंबधाई 💐💐💐 निरंतरता लाइये 💐💐💐
अच्छी लेखनी ठहरनी नहीं चाहिए 💐💐💐
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19-03-2021 को चर्चा – 4,002 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
सुन्दर और भावप्रवण।
जवाब देंहटाएंदिल के तार को झकझोरती मार्मिक सृजन,सादर नमन नीतू जी
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत सुंदर नवगीत नव व्यंजनाएं, नव बिंब।
जवाब देंहटाएंसुंदर सृजन।