नवगीत
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
मुखड़ा/पूरक पंक्ति 15/14
अन्तरा 14/14
बादलों ने ली अँगड़ाई,
खिलखिलाई ये धरा भी।
ताकती अपलक अम्बर को,
गुनगुनाई ये धरा भी।
1
चंद्र तिलक माथे नभके,
धरती के मन अति भाये।
मेघ जहाँ बन अवगुंठन,
धरती को आज सताये।
आँसू ओस बने बिखरे,
छटपटाई ये धरा भी।
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई ये धरा भी।
2
महके पात मेंहदी के,
ये हवा कुछ घोलती है।
और महावर नभ हाथों,
वो यहाँ कुछ बोलती है।
ले पीताम्बर पुष्प पुलकित,
लहलहाई ये धरा भी।
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई ये धरा भी।
3
चाँदनी बिखरी गगन में,
साँझ सिंदूरी सजी है।
झूमती शीतल हवाएँ,
बाँसुरी जैसे बजी है।
जुगनुओं की रौशनी में,
जगमगाई ये धरा भी।
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई ये धरा भी।
4
कोकिला के स्वर जो गूँजें,
रातरानी मुस्कुराई।
झूमता मन का मयूरा,
दामिनी जो कड़कड़ाई।
डोलती हर पुष्प डाली,
बुदबुदाई ये धरा भी।
बादलों ने ली अंगड़ाई,
खिलखिलाई ये धरा भी।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'