मैं बांध सका हूँ कब हिय को, उस मोहपाश आकर्षण से।
अभिव्यक्त भाव हो जातें है, शब्दों के प्रेम समर्पण से।।
कल्पित से मेरे जीवन मे, प्रतिपल तेरी ही छाया है।
सर्वस्व समर्पित करके ही, हिय ने तुझको अपनाया है।
यह मूढ़ विभोर हृदय व्याकुल, जाने क्या रीति-अनीति को।
यह जग ज्ञानी समझाता है, तज सदा कलंकित प्रीति को।
मैं हुआ समाहित हूँ तुझमें, कैसे मुख मोडूँ दर्पण से।
मुझमें कोई रसधार नही, अनुपम मादक शृंगार नही।
मैं जन्मजात बैरागी हूँ, तुझ बिन मेरा उद्धार नही।
शब्दों के अद्भुत जालों से, मैं कब तुझको बहकाता हूँ।
मैं प्रेम पिपासित चातक सा, दर्शन में ही खो जाता हूँ।
हर व्यथा लुप्त हो जाती है, तेरे क्षणभर के तर्पण से।।
रागों का है अनुराग मधुर, भावों का भँवर जगाता है।
पृष्ठों पर तथ्य प्रमाणित है, हर गीत तुझी को गाता है।
नदिया सागर झरने पर्वत, सब तेरे ही प्रतिबिंब बने।
हर शब्द सुगंधित है तुझसे, तुझसे खुशियों के मेघ घने।
मैं याचक सा निःशब्द हुआ, हर प्रेम पुष्प के अर्पण से।।
- नीतू ठाकुर 'विदुषी'
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद 🙏
हटाएंबहुत दिनों के बाद दिखी
जवाब देंहटाएंस्वास्थ तो ठीक है न
शानदार रचना
शुभकामनाएं
सब ठीक है दी...सादर धन्यवाद 🙏
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसादर धन्यवाद 🙏
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया दी 🙏
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