*वीरता के उपासक श्रीनेत राजपूत*
वंश निकुम्भ जहाँ तक देखा,
रघुकुल का है दिव्य प्रकाश।
जिनकी गौरव गाथाओं को,
गाते हैं धरती आकाश।।
भारद्वाज प्रवर उत्तमता,
कहते ये मित्रों के मित्र।
श्री नगर सा धाम बसा कर,
धरणी पर गढ़ते जो चित्र।।
अंगिरसी है श्रेष्ठ प्रवर जो,
उसकी महिमा देख महान।
कहलाये जो वीर उपासक।
रक्तिम रवि जिनकी पहचान।।
वार्हस्पत्य प्रवर दूजा है
करते इसका श्रेष्ठ बखान।
जिनके श्रम से थे लहराए,
पर्वत नदिया वन खलिहान
चण्डी कुल की देवी को मैं
आज झुकाती अपना भाल।
अपने भक्तों की खतिर जो,
प्रतिपल रहती बनके ढाल।।
साम सुना है वेद हमारा
उत्तम वाणी की पहचान।
रघुकुल से उपजी यह शाखा,
उत्तम कुल का है अभिमान।।
सूत्र सुना गोभिल है हमने
जिसको कहते हैं गृहसूत्र।
मुगलों को पावन करते थे,
छिड़क छिड़क के जो गोमूत्र।।
शाक्त सशक्त कहा है वैष्णव
धर्म इसी का गौरव गान।
सत्यपरायण शासक थे जो,
मर्यादा का रखते भान।।
और प्रमुखगद्दी टिहरी में,
कहते हैं जिसको गढ़वाल।
शौर्य समाया था रग रग में,
बनते थे दुर्बल की ढाल।।
राजा नल से धैर्य मिला था,
दमयंती से पाया रूप।
रघुकुल के वंशज कहलाये,
जन्म समय से श्रेष्ठ अनूप।।
कुण्ड हवन में दहके ज्वाला,
क्षत्रिय कुल का यूँ विस्तार।
बर्फीली चट्टानों में अरि
हिमखण्डों सा ले आकर।।
मुगलों का आतंक मचा था,
धर्मों पर थी तेज कटार।
राजपुताना की तलवारें,
कैसे सहती अत्याचार।।
बैरी बनकर नित आ जाता,
राजाओं का अपना स्वार्थ।
रिपु बनकर षड्यंत्र रचाता,
करना चाहे स्वप्न कृतार्थ।।
दृश्य मनोरम उस घाटी के,
बन बैठे जी का जंजाल।
हर कोई हथियाना चाहे,
शीश मुकुट भारत का भाल।।
आँधी जैसे घुसते जाते,
श्री नगरी पर ले हथियार।
फिर भी धीरज थामे देखा
दीपक की लौ को हरबार।।
लाशों के अम्बार लगाते,
दुश्मन गरजा सीना तान।
वीर उपासक कब सह पाते,
अपनी धरणी का अपमान।।
हार विजय की बात नही थी,
बस खटकी थी वो ललकार।
दुश्मन को अब राख बनाने,
राजपुताना थी तैयार।।
तोपों के सन्मुख होकर भी,
कब घबराए योद्धा वीर।
मातृ धरा की रक्षा के हित,
रिपुदल के दें मस्तक चीर।।
शंख बजाकर नाद करें जब,
कम्पित होते थर-थर प्राण।
माता चण्डी प्रकटी दिखती,
करने को पुत्रों का त्राण।।
तलवारों की गर्जन सुनकर,
रिपु दल की रुक जाती श्वास।
राजपुताना रक्त उबलता,
नस नस में बढ़ता विश्वास।।
दानव जैसे हँसते अरि का,
तोड़ा जबड़ा उखड़े दाँत।
हिमशिखरों की शितलता में,
सून उदर से बाहर आँत।।
विपदा का ताण्डव था छाया,
आँख लिलोरे देखे काल।
मृत्यु दिखी जब रिपुदल भागे,
साहस ऐसा था विक्राल।।
भाल अनंत भुजा बिखरी थी,
घाटी ताण्डव का आधार।
रक्त प्रवाहित नदिया बहती,
क्रंदन गूँजे हाहाकार।।
सैनिक दस्ते और मंगाए,
दुगनी गति से करते वार।
भूकंपी सी आहट होती,
भर तलवारें युद्ध हुँकार।।
रिपु कहता शरणागत आओ,
बच जाएंगे सबके प्राण।
वीरों ने हँसकर ललकारा,
कर बैठेगा तू ही द्राण।।
शीश कटाने को आतुर है,
इस धरती का हर सरदार।
किंतु समर्पण कायरता है,
मर जागेंगे या दें मार।।
रक्त नदी बहती है रण में,
हार विजय की बहती नाव।
चीलों से भरता है अम्बर,
शौर्य बढ़ाते ऐसे भाव।।
चीख रही थी घाटी पूरी,
खोकर अपने प्यारे लाल।
विधवा जैसी दिखती नगरी,
रिक्त हुआ था आँचल भाल।।
जीवन को संघर्ष बनाया,
और नहीं मानें जो हार।
तानाशाही अंग्रेजों पर,
राजपुताना तेज प्रहार।।
गोरिल्ला भी अवसरवादी,
करते रहते थे नित घात।
इनको भी तो धूल चटाई,
दिव्य रही कुल की सौगात।।
दुश्मन देखे छाती पीटे,
जैसे आया सन्मुख काल।
अपनी साँस बचाये मूरख,
या थामे फिर अपनी ढाल।।
कालों के ये काल कहाये,
दुश्मन का करके संहार।
अंग्रेजों की नींद उड़ा दी,
ऐसी देते उनको मार।।
अंग्रेजों के शीश चढ़ा कर,
कुलदेवी को देते मान।
धरती माता के चरणों में,
पूजित है ऐसा बलिदान।।
जिनके भय से छुप जाते थे,
दुष्ट कुकर्मी लेकर प्राण।
मुगलों की नव मील सुरंगे,
देती उसका पुष्ट प्रमाण।।
जीवन को संघर्ष बनाया,
और नहीं मानें जो हार।
तानाशाही अंग्रेजों पर,
राजपुताना तेज प्रहार।।
गोरिल्ला भी अवसरवादी,
करते रहते थे नित घात।
इनको भी तो धूल चटाई,
दिव्य रही कुल की सौगात।।
क्षत्रिय कुल का गौरव ऊँचा,
जिनका रहता ऊँचा शीश।
मात पिता गुरु धरणी पूजें,
रक्षक बनते जिनके ईश।।
गोरखपुर की मिट्टी गाती,
इतिहासों का गौरव गान।
श्रीनेतों की कर्म स्थली है,
जिसका उनको है अभिमान।।
घूँघट काढ़ चलें सब दुश्मन,
भूलें पौरुष बनते नार।
ऐसे वीर लड़ाकू योद्धा,
श्रीनेत बने उनके भरतार।।
झुकना जिनका काम नही है,
लिखते हैं वो ही इतिहास।
राजपुताना गौरव चमके,
जैसे करता सूर्य उजास।।
शत शत वंदन करते उनको,
जिनका है पूजित बलिदान।
भारत वासी होना ही था,
जिनके अन्तस् का अभिमान।।
अपना सबकुछ अर्पण करते,
बनते शासक श्रेष्ठ महान।
शीश झुकाया जिसने अरि से,
वो क्या जाने ये बलिदान।।
उच्च महल खो उच्च हवेली,
जीवित है जिनका अभिमान।
क्षत्रिय कुल नत मस्तक होकर,
देता उन वीरों को मान।।
रिपु के पग की रजकण चाटें,
रजवाडें समझें अपमान।
तोड़ घमण्ड वहाँ दें धन का,
लोग करें जब धन सम्मान।।
जब तक धरती अम्बर जीवित,
तब तक गाएंगे यह गान।
क्षत्रिय कुल के बलिदानों पर,
जीवित है भारत की शान।।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
शौर्य वंश की श्रेष्ठ परम्परा रघुकुल के निकले ये योद्धा सैनानी जहाँ जहाँ गए हैं, रहे हैं, वहाँ-वहाँ इनके शौर्य का डंका ऐसा बजा है कि युगों-युगों तक गाया जा सकेगा। श्रीनेत जी द्वारा बसाया गया श्री नगर भी भी साहस और गौरव भरी गाथा है जिसे आपकी लेखनी ने सधे हुए उत्तम शिल्प में निभाया है गेयता का प्रवाह भी उत्तम है अनंत बधाई एवं शुभकामनाएं 💐💐💐
जवाब देंहटाएंलेखनी ठहरनी नहीं चाहिए वीर रस पर चल पड़ी है तो यह यात्रा कुछ और चलनी चाहिए ... अग्रिम शुभकामनाएं ....
सादर धन्यवाद गुरुदेव 🙏
हटाएंआपकी प्रतिक्रिया सदैव लेखनी को और लिखने के लिए प्रेरित करती है।
अद्भुत, अप्रतिम नतमस्तक...🙇🙇🙇🙇💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दीपिका जी 🙏🙏
हटाएंबेहतरीन आल्हा हार्दिक बधाई💐💐💐
जवाब देंहटाएंशानदार सृजन बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंशानदार सृजन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअप्रतिम सृजन, हार्दिक बधाई आदरणीया👏👏🌺🌺
जवाब देंहटाएंअद्भुत अप्रतिम सृजन।
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव ।
सधा शिल्प।
वीर रस से ओत-प्रोत ओज भरा आह्वान।
वाह,नायाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर शानदार सृजन आदरणीया 🙏💐
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