मापनी ~ 1212 212 122 1212 212 122
बिछा रही प्रेम पुष्प पथ पर प्रबुद्ध रातें नई-नई हैं।
करे सुवासित तथा प्रकाशित विबुद्ध बातें नई-नई हैं।।
पुनीत संस्कृति सदैव खंडित करे यहाँ पर विमूढ़ जनता।
प्रहार पे फिर प्रहार देती विरुद्ध जातें नई-नई हैं।।
अभी जली भी नही चिता वो बजा रहे ढोल कुछ नगाड़े।
निहारती आँख पूड़ियों को अबुद्ध पातें नई-नई हैं।
सिसक रही रोटियाँ करों में पुकारती कोख आज सूनी।
उजाड़ माँगे करें प्रताड़ित निरुद्ध लातें नई-नई हैं।
सदा छला प्रीत के हृदय को स्पृहा जगाती सुसुप्त मन में।
विकार बन के बरस पड़ी ये विशुद्ध घातें नई-नई हैं।।
बहा रहे दूध नालियों में रहे कुपोषित भविष्य विदुषी।
चिपक रही देह अस्तियों से अशुद्ध आतें नई-नई हैं।।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'