मापनी ~ 1212 212 122 1212 212 122
बिछा रही प्रेम पुष्प पथ पर प्रबुद्ध रातें नई-नई हैं।
करे सुवासित तथा प्रकाशित विबुद्ध बातें नई-नई हैं।।
पुनीत संस्कृति सदैव खंडित करे यहाँ पर विमूढ़ जनता।
प्रहार पे फिर प्रहार देती विरुद्ध जातें नई-नई हैं।।
अभी जली भी नही चिता वो बजा रहे ढोल कुछ नगाड़े।
निहारती आँख पूड़ियों को अबुद्ध पातें नई-नई हैं।
सिसक रही रोटियाँ करों में पुकारती कोख आज सूनी।
उजाड़ माँगे करें प्रताड़ित निरुद्ध लातें नई-नई हैं।
सदा छला प्रीत के हृदय को स्पृहा जगाती सुसुप्त मन में।
विकार बन के बरस पड़ी ये विशुद्ध घातें नई-नई हैं।।
बहा रहे दूध नालियों में रहे कुपोषित भविष्य विदुषी।
चिपक रही देह अस्तियों से अशुद्ध आतें नई-नई हैं।।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
इतनी लंबी मापनी पर शिल्प साधना तथा अपनी बात को मात्रा पतन के बिना कह पाना ही अपने आप में बहुत बड़ी बात है
जवाब देंहटाएंनमन गुरुदेव 🙏
हटाएंसादर धन्यवाद 🙏
आपके उदाहरण से प्रेरित यह रचना आपको पसंद आई लेखन सार्थक हुआ 🙏
कठिन मापनी पर अद्भुत सृजन बेहद खूबसूरत
जवाब देंहटाएंबहुत ही अनुपम रचना 👌 नीतू जी
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत सृजन सखी 👌👌
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (18-06-2022) को चर्चा मंच "अमलतास के झूमर" (चर्चा अंक 4464) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर गीतिका कठिन मापनी पर सहज सृजन।
जवाब देंहटाएंअति उत्तम सृजन 🙏👌👌
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत बढ़िया सराहनीय सृजन।
जवाब देंहटाएंसादर
उत्कृष्ट प्रस्तुति...👍👍👍
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