सो रही है प्यार से मिट्टी की चादर ओढ़कर
आज भी माँ क़ब्र से लोरी सुनाती है मुझे
दूर अंबर में बसेरा है मेरे माँ का मगर
आज भी वो दिल के कोने में बसाती है मुझे
भूख से बेज़ार होकर जब पुकारा है उसे
भीगी पलकों से निहारे थपथपाती है मुझे
भूख से बेज़ार होकर जब पुकारा है उसे
भीगी पलकों से निहारे थपथपाती है मुझे
जब कभी तन्हा हुआ ये दिल ज़माने से खफा
बन के झोका याद का वो गुदगुदाती है मुझे
जब कभी घायल हुआ और दर्द से चीखा हूँ मै
चूम कर माथे को मरहम वो लगाती है मुझे
जब कभी घायल हुआ और दर्द से चीखा हूँ मै
चूम कर माथे को मरहम वो लगाती है मुझे
जब कभी मायूस करती हैं मुझे नाक़ामियाँ
ख्वाब में आकर वही धाडस बंधाती है मुझे
जब कभी आतें हैं तूफान घेरने दिल को मेरे
लड़ती तूफानों से आँचल में छुपाती है मुझे
बन के परछाई वो हर पल साथ चलती है मेरे
अब जुदा कर के दिखा किस्मत मेरी माँ से मुझे
- नीतू ठाकुर
बहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार!!!
हटाएंमाँ, एक शब्द नही पूरी की पूरी शब्दकोश भी कम होगी इसकी सार्थकता को सिद्ध करने या इसे परिभाषित करने में। माँ इक आयाम है ममता जिसमें रची बसी है। आपकी कोशिश इसी कड़ी में एक सार्थक रचना है। बधाई नीतू जी।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार!!!
हटाएंवाह.. निशब्द. कहने को कुछ नहीं है नीतू जी
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार!!!
हटाएंवाह ! क्या बात है ! लाजवाब !! बहुत खूब आदरणीया ।
जवाब देंहटाएंलाजवाब.
जवाब देंहटाएंमां .....निःस्वार्थ प्रेम का इस के आगे कोई शब्द ही नही बना दुनिया में
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