नवगीत
जानें कितनी बली गई
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
मापनी
स्थाई पूरक पंक्ति ~~ 16/14
अन्तरा ~~ 16/16
कहर प्रकृति का फिर जब टूटा
जानें कितनी बली गई
लगे विधाता फिर भी रूठा
खुशियाँ जग से चली गई।।
बंजर धरती किसे पुकारे
सूखी खेतों की हरियाली
भ्रमर हो गए सन्यासी सब
आज कली को तरसे डाली
श्वास श्वास को प्राण तरसते
मृत्यु सभी पल टली गई।।
बांध रहे खुद पैर बेड़ियाँ
जीवन की डोरी थामे
शहनाई के आँसू टपके
हाथ यहाँ फिर अब क्यों थामे
सदियाँ फिसल गई मुट्ठी से
बस आशाएं पली गई।।
कानन से ज्यादा सूनापन
जब ठहर गया इस जीवन में
एक आग से सब कुछ स्वाहा
गूँजे बाकी सी हैं मन में
गर्म तेल था गर्म कढ़ाई
खुशियाँ सारी तली गई।।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (06-07-2020) को 'नदी-नाले उफन आये' (चर्चा अंक 3754)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार
हटाएंबहुत सुंदर पंक्तियाँ। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंसुंदर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंसत्य को दर्शाती पंक्तियाँ ...!
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