शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

ग़जल आज कल : नीतू ठाकुर 'विदुषी'


अजनबी सा लग रहा घर आज कल
गिन रहा पलछिन यहाँ पर आज कल।।

बैठ कर आँसू बहाते हम जहाँ
अब नही दिखता कहीं दर आज कल

शुष्क आँखे हो चुकी हैं बेजुबां
दिल का कोना हो रहा तर आज कल

लग रही खामोश रूठी हर गली
*दिल नहीं लगता है अक्सर आज कल* *

चाह अब पाने की कुछ बाकी कहाँ
हम झुकाये चल रहे सर आज कल

अब शराफत नाम की बाकी रही
बन गया जैसे खुदा जर आज कल

पूजता है देवियों को रात दिन
नारियों को पीटता नर आज कल

डर कहाँ बाकी रहा अब मौत का
जब उम्मीदें हीं गई मर आज कल

देख विदुषी दंग है शतरंज से
पिट रहे हैं मोहरे पर आज कल

नीतू ठाकुर 'विदुषी'

1 टिप्पणी:

  1. सुंदर ग़ज़ल हुई 👌👌👌 बधाई
    इसी तरह नित निरन्तर बढ़ती रहो ...
    और नई नई विधाओं में सृजन करती हो ...

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