शुष्क से कुछ पुष्प व्याकुल
पुस्तिका से झाँक रोये
स्वप्न की पगडंडियों पर
अनकहे हर भाव खोये
बीहड़ों से इस हॄदय में
हर्ष कब करता बसेरा
स्वप्न की नगरी अनोखी
जी रही जो बिन सवेरा
कंटकों के बाग निष्ठुर
नेह के कब बीज बोये
शब्द लिख लिख कर मिटाती
लिख न पाए एक पाती
लेखनी की धार टूटी
व्यंजना के गीत गाती
देहरी करती करती प्रतीक्षा
जीर्ण तन का भार ढोये
मृत्यु सा दुख यूँ मनाती
आँसुओं की शाल झीनी
कष्ट की परछाइयों में
राख की खुशबू है भीनी
शोक की शैया सजाकर
बाँसुरी के राग सोये
@नीतू ठाकुर 'विदुषी'
वाह!लाजवाब सृजन,अद्भुत💐💐😊😊🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद दीपिका जी 🙏
हटाएंबहुत ही मर्म स्पर्शी रचना...
जवाब देंहटाएंआभार प्रकाश जी 🙏
हटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक गीत।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय 🙏
हटाएंबहुत सुन्दर और भावपूर्ण गीत।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय 🙏
हटाएंमन कि व्यथा को खूबसूरत शब्दों में ढाला है ... सुन्दर गीत ...
जवाब देंहटाएंकिताबों से सूखे फूलों का मिलना न जाने कितने पुराने ज़माने की बात है ... क्या आज भी होता है ऐसा ? तुम्हारे इन भावों ने मन मोह लिया ...
बहुत बहुत शुक्रिया संगीता जी 🙏
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