गुरुवार, 9 नवंबर 2017

मन का क्रंदन... नीतू ठाकुर


 
हार जाती हूँ , टूट जाती हूँ,
रूठ जाती हूँ खुद से,
जब समझ नहीं आता, 
किस्मत क्या चाहती है मुझसे, 
मिटती है उम्मीदे,
टूटते है सपने,
पराये से लगते है
सब लोग अपने,
गिरती हूँ ,संभालती हूँ,
घुटती  हूँ हर पल,
फिर भी मन कहता है,
अभी थोड़ा और चल,
कशमकश में गुजरी है
मेरी सारी ज़िंदगी,
क्यों करूँ भला मै
किसी और की बंदगी,
क्यों हो मेरे जीवन पर 
किसी और का अधिकार,
हो नहीं सकता मुझे 
दासत्व स्वीकार,
क्यों मै कतरू पंख अपने,
बांध लूँ मै बेड़ियाँ, 
क्यों रहे खामोश ये लब, 
मंजिलों से दूरियाँ ,
क्यों फसूं मै बेवजह ही, 
रीतियों के जाल में,
जब मेरे अपने ही मुझको,
ला रहे इस हाल में,
कर लूँ आज मुक्त मन को,
इस जहाँ के बंधनो से,
जब नहीं होता है आहत,
कोई मन के क्रंदनों से , 

-नीतू रजनीश ठाकुर 



   
  
   
   

7 टिप्‍पणियां:

  1. कर लूँ आज मुक्त मन को,इस जहाँ के बंधनो से,
    जब नहीं होता है आहत, कोई मन के क्रंदनों से ,

    लाजववाब अभिव्यक्ति.... 👌👌👌

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  2. क्यों फसूं मै बेवजह ही,
    रीतियों के जाल में,
    जब मेरे अपने ही मुझको,...
    वाह!शब्दों का भावमय प्रवाह बहुत बढिया।

    जवाब देंहटाएं
  3. कर लूँ आज मुक्त मन को इस जहाँ के बंधनों से
    जब नहीं होता है,आहत कोई मन के क्रन्दनों से ,बिल्कुल सही नीतू जी अपने मन की ही सुननी चाहिये । अच्छी रचना

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  4. वाह !!नीतू जी ,बहुत सुंदर ,भावपूर्ण रचना ।

    जवाब देंहटाएं

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