मेघ मल्हार सुनाने आये
हिय की व्यथा दिखाने आये
बरस रहे अंबर के आँसू
धरती तक पहुँचाने आये
जाने कब से धरा है प्यासी
प्रतिपल छायी रहती उदासी
बन उपहार विकल प्रेमी का
प्रेम सुधा बरसाने आये
मेघ मल्हार सुनाने आये ....
प्रेम अगाध मौन है भाषा
कैसे व्यक्त करें अभिलाषा
विरह वेदना विरही जाने
विरहन को समझाने आये
मेघ मल्हार सुनाने आये ....
जो इस जग की प्यास बुझाये
उसकी तृष्णा कौन मिटाये
तड़प रहा है वो भी तुम बिन
यह संदेश बताने आये
मेघ मल्हार सुनाने आये ....
-नीतू ठाकुर
बहुत ही प्रभावशाली रचना....
जवाब देंहटाएंप्रेम अगाध मौन है भाषा, कैसे व्यक्त करें अभिलाषा ....
बहुत बहुत आभार.... सुन्दर प्रतिक्रिया।
हटाएंजो इस की प्यास बुझाए
जवाब देंहटाएंउसकी तृष्णा कौन मिटाए
बहुत ही सुंदर एवं भावपूर्ण रचना 🙏
बहुत बहुत आभार रचना को पसंद करने के लिये
हटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ह्रदय से ।
हटाएंवाह अति सुन्दर भाव अति सुंदर अभिव्यक्ति करण ....
जवाब देंहटाएंमेघ मल्हार सुनाने आये ....
बरस बरस कर कह रहे
सखी तेरे हिय की बात
काव्य रचा है सावन जैसा
मन को बहुत सरसाय
बहुत लाजवाब प्रतिक्रिया सखी .... आप को अच्छी लगी लेखन सार्थक हुआ ....आभार
हटाएंबहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत ही उत्कृष्ट रचना...
जवाब देंहटाएंमेघ मल्हार सुनाने आये...
वाह!!!
लाजवाब ...
बहुत शानदार प्रतिक्रिया ....आभार 🙏🙏🙏
हटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंजो सबकी प्यास बुझाऐ
वो खुद प्यासा रह जाये
ज्यों ज्यों नीरध जल बरसाये
तृषा हृदय की बढती जाये ।
बहुत खूब सखी।
बहुत शानदार प्रतिक्रिया .... आप की प्रतिक्रिया सदा ही मन में उत्साह जगाती है सखी....आभार
हटाएंक्या बात क्या बात।।। सरल सरस भाषा की कलकल बहती प्रभावशाली रचना। मेरी सोच कहती है कि रचनाकार का काव्य कौशल तभी प्रतिपादित होता है जब वह अपनी बात सरल शब्दों में पूरे काव्य लालित्य के साथ कह जाते हैं। सरलता जिव्हा पर चढ़ती है। कंठ से बहती है। स्वरों में सजती है।
जवाब देंहटाएंमहान कवि श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी की एक कविता जिसका काव्य रस सम नहीं है किंतु सरलता का अनुपम उदाहरण है मुझे सदा अनुकरणीय प्रतीत होती है। कविता अंकित किये बिना रह नहीं पा रहा हूँ -
चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!
-पुष्प की अभिलाषा
पूर्णतया गायन योग्य मीठी एवं सुघड़ रचना। वाह
आप की प्रतिक्रिया रचना का मोल बढ़ा देती है ...किन शब्दों में आभार व्यक्त करूँ .....बस आशिर्वाद बनाये रखें ....🙏🙏🙏
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-09-2018) को "चाहिए पूरा हिन्दुस्तान" (चर्चा अंक-3103) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार रचना को पसंद करने के लिये 🙏
हटाएंबेहतरीन लयबद्ध रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार 🙏
हटाएंबेहतरीन, खूबसूरत रचना 👏 👏 👏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार 🙏🙏🙏
हटाएंबहुत बहुत आभार 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २४ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सच है जो तृष्णा मिटाए उसकी कौन प्यास बुझाये.
जवाब देंहटाएंसटीक व भावपूर्ण.
बहुत ही सुन्दर रचना 👌
जवाब देंहटाएंजो इस जग की प्यास बुझाये - उसकी तृष्णा कौन मिटाए ?
जवाब देंहटाएंबहुत खूब प्रिय नीतू जी -- बेहतरीन सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई और आभार |
बहुत सुन्दर शब्द विन्यास ... गजब की गेयता है इस विरह गीत में ...
जवाब देंहटाएंमन की व्यथा जैसे छलक रही है शब्दों से ... बहुत उत्तम ...