नवगीत
अप्सरा
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
मापनी ~~16/16
श्रृंगार सुस्त उस यौवन का,
जो कुंदन गल में पड़ा हुआ।
आहट उसकी पाकर व्याकुल,
अवगुंठन में नग जड़ा हुआ।
1
झुकी पलक से टपके आँसू ,
रतनारे अधरों पर चमके।
चंद्रशिखाएं बिखरी बिखरी,
काले बादल बन कर दमके।
सिंदूरी मुख कहाँ छुपाये,
जब व्यथित हॄदय भी कड़ा हुआ।
2
हार शृंगार चूड़ी कंगन,
अंतस में कुछ पीर जगाये।
काल चक्र अजगर बन निगले,
प्रेम विरह के स्वप्न बुझाये।
पूनम की रातों में तम का,
देखा जो घेरा बड़ा हुआ
3
जोगन बन कर घूम रही है
आज अप्सरा इन्द्रलोक की
कोई सुने न विरह वेदना
अंत नही जब दिखे शोक की
वैभव त्याग प्रीत की खातिर
तब विरही मन भी अड़ा हुआ
4
नागिन सी लगती है करधन,
चुभता है बालों का गजरा।
आज कपोलों पर पसरा है,
निर्वासित नैनों का कजरा।
पैरों का बिछुआ लगता है,
उस पैंजनिया से लड़ा हुआ।
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 31 मार्च 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअद्भुत
जवाब देंहटाएंवाह आदरणीया ...अनुपम सृजन 👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंसुबकती अप्सरा का अद्भुत विरह-गान।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत ... विरह की ऊर्जा लिए भावपूर्ण ..
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