शुष्क से कुछ पुष्प व्याकुल
पुस्तिका से झाँक रोये
स्वप्न की पगडंडियों पर
अनकहे हर भाव खोये
बीहड़ों से इस हॄदय में
हर्ष कब करता बसेरा
स्वप्न की नगरी अनोखी
जी रही जो बिन सवेरा
कंटकों के बाग निष्ठुर
नेह के कब बीज बोये
शब्द लिख लिख कर मिटाती
लिख न पाए एक पाती
लेखनी की धार टूटी
व्यंजना के गीत गाती
देहरी करती करती प्रतीक्षा
जीर्ण तन का भार ढोये
मृत्यु सा दुख यूँ मनाती
आँसुओं की शाल झीनी
कष्ट की परछाइयों में
राख की खुशबू है भीनी
शोक की शैया सजाकर
बाँसुरी के राग सोये
@नीतू ठाकुर 'विदुषी'