करती निरंतर परिक्रमा
क्यों ये धरा अभिशप्त है
किस आस में अविरल चले
जब की वो मन से विरक्त है
किस खंत में जलती है वो
उसका ह्रदय संतप्त है
ज्वालामुखी सी जल रही
किस भाव में आसक्त है
कोमल ह्रदय पाषाण बन
लावे में बहता रक्त है
खामोश है हर पल मगर
मुख क्यों तेरा अनुरक्त है
ब्रम्हांड की शोभा है वो
तन से भले संक्षिप्त है
अनभिज्ञ है क्या स्वयम से
शाश्वत है वो अलिप्त है
अगणित जीवों की जन्मदात्री
ममता से क्यों अतृप्त है
अनुराग से वंचित सदा
सभी बंधनों से मुक्त है
अनुराग से वंचित सदा
सभी बंधनों से मुक्त है
- नीतू ठाकुर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-03-2017) को "अगर न होंगी नारियाँ, नहीं चलेगा वंश" (चर्चा अंक-2904) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार
हटाएंपरिक्रमा पर बहुत सुंंदर रचना..
जवाब देंहटाएंअद्भुत सखी ।प्रशंसा को शब्द कम है और आपके कविता कै भाव विराट तक फैले हैं।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद।
बहुत बहुत आभार सखी
हटाएंरपय नीतू जी -- परिक्रमा के बहाने धरा की नियति के अनबुझ प्रश्नों को बेहतरीन शब्द दिए आपने | सस्नेह शुभकामना |
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार...सुंदर प्रतिक्रिया
हटाएंबहुत सुन्दर भावों से सजी सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १२ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार
हटाएंबहुत लाजवाब रचना.....
जवाब देंहटाएंवाह!!!
बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2018/03/60.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार
हटाएंवाह!!नीतू जी , क्या खूब लिखती हैंं आप ,लाजवाब!!!
जवाब देंहटाएंनारी मन भी तो धरा है धारिणी है ... हर बात सहते हुए वंचिता है मुक्त भी है ...
जवाब देंहटाएंगहरी रचना सोचने को मजबूर करती ....
बहुत बहुत आभार...सुंदर प्रतिक्रिया
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