नवगीत
खेल रही है किस्मत चौसर
फेक रही है कैसे पासे
भ्रमित हो रहा मानव ऐसे
मानवता मिट रही धरा से
1
जीवन का उद्देश्य भुलाकर
दास बने धन को अपनाकर
तिमिर व्याप्त है सारे जग में
अंतर्मन की चीख मिटाकर
कठपुतली बन जीवन जीते,
कौन ज्ञान के दीपक चासे
भ्रमित हो रहा मानव ऐसे
मानवता मिट रही धरा से
2
चाह सुखों की जीवन हरती
पाप पुण्य की गठरी भरती
चाह जगी अंबर छूने की
पर आशाएं हर पल मरती
घुट घुट कर जीता है मानव
सूखे बीत रहे चौमासे
भ्रमित हो रहा मानव ऐसे
मानवता मिट रही धरा से
3
जीवन का आभास नही है
कुछ पाने की आस नही है
हिय कुंठित व्याकुल है कितना
खुद पर भी विश्वास नही है
स्वर्थ ढूंढते रिश्ते नाते
छलते खुद को अच्छे खासे
भ्रमित हो रहा मानव ऐसे
मानवता मिट रही धरा से
नीतू ठाकुर 'विदुषी'
बहुत सुंदर विदुषी जी मानवता के गिरते स्वरूप को केंद्रित कर बोलते बिम्ब के माध्यम से एक अच्छा नवगीत👌👌👌 बधाई स्वीकार करें 💐💐💐
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 20 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (21-01-2020) को "आहत है परिवेश" (चर्चा अंक - 3587) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर रचना, आकंठ स्वार्थ में डूबा मानव भला मानवता को क्या पहचाने
जवाब देंहटाएंनीतु दी, मानवता के गिरते स्तर को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया हैं आपने।
जवाब देंहटाएंसुंदर, सटीक और यथार्थ , लाज़बाब सृजन ,सादर नमन नीतू जी
जवाब देंहटाएंवाह अद्भुत रचना
जवाब देंहटाएंउम्मीद है, मिटेगी तो नहीं मानवता ।
जवाब देंहटाएंपर भ्रमित है, दुखी है ....
सुंदर विवेचना ।
बहुत ही सुन्दर सृजन एवं सार्थक सृजन आदरणीय नीतू जी
जवाब देंहटाएंसादर